kanchan singla

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डर लगता है मुझे

डर लगता है मुझे उन राहों से जो सुनसान होती हैं।
डर लगता है मुझे उन नजरों से जो नोचना चाहती हैं।
डर लगता है उन चेहरों से जिनमें वहशीपन झलकता है।
डर लगता है भीड़ में चलते उन अनगिनत हाथों से जो जिस्म नहीं आत्मा को काटना चाहते हैं।
डर लगता है एक लड़की का मर्दों की भीड़ में अकेले होने से।
डर लगता है उन ठाहकों से जो गूंजते है किसी का आत्मसम्मान गिराने से।
डर लगता है उन तानों से जो केवल यह कहना चाहते हैं तुम लड़की हो आखिर कर क्या लोगी।
डर लगता है एक लड़की की उतरती हुई मेंहदी से जिसका फीका पड़ जाने का कारण वह स्वयं ही होती है।
डर लगता है उन टूटे सपनों की आवाज़ से जो टूट जाते है कुछ पारिवारिक दुहाहियों से।
डर लगता है उन टूटी चूड़ियों को देखकर जिन्हें सिर्फ कलाईयां पकड़ कर तोड़ दिया जाता है।
डर लगता है उस चटाक की आवाज़ से जो बस अहम तोड़ने की कोशिश में पड़ा है।
डर लगता है उन सुबकते आसुंओं से जिन्हे वहां कोई नहीं सुनता।
डर लगता है एक बेटी का बहू हो जाने से और मर्यादाओं के लिबास में बंध जाने से।
डर लगता है ऐसी दोस्ती से जिसका मतलब सिर्फ दग़ाबाज़ी से है।
डर लगता है उन लोगों से जो कहने भर के अपने है और वक्त आने पर चाकू की नोंक से छीलते हैं।
डर लगता है उन बातों से जब कोई कहता है तुम लड़की हो अकेले बाहर मत निकलो ।
डर लगता है उन अंधेरों से जहां रोशनी का निशान नहीं है।।


- कंचन सिंगला ©®

लेखनी प्रतियोगिता -21-Nov-2022

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7 Comments

बहुत ही उम्दा सृजन और अभिव्यक्ति की

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Punam verma

22-Nov-2022 09:02 AM

Nice

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Abhinav ji

22-Nov-2022 07:56 AM

Very nice👍👍

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